8 मार्च 2013



काव्य संकलन "दिसंबर का महीना मुझे आखिरी नहीं लगता"(बोधि प्रकाशन )
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कवयित्री -निर्मला गर्ग
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निर्मला गर्ग की कविताओं में संतुलन है !कभी बोलता हुआ ,कभी खामोश ! कवयित्री भावुकता में एक साफ सुबह को भी अंकुरित अनाज का दर्जा देती है !ये सोचकर कि वो अंकुरित अनाज किसी का पेट भरने की नई इबारत लिखेगा और वो सुबह किसी उदास आदमी को सुकून देगी !
कच्ची नींद के स्वप्न का जिक्र है ! ख़्वाब कच्ची नींद के हों या पक्की नींद के !वे आपका कहना नहीं मानते !वे किसी की भी नहीं सुनते !
कवयित्री पुरुस्कारों की पड़ताल अच्छे तरीके से करती हैं !वे पुरुस्कारों की धूल पर चमक देख लेती हैं ! कविता की जरूरत महसूस करते हुए कहती हैं कि दिन अच्छे हों या बुरे ,कविता की जरूरती हमेशा रहेगी !बुरे दिनों में तो और भी जरूरी !
रहस्य और स्वप्न के बीच कवयित्री खुद को निर्वाक खड़ा हुआ पाती हैं !उसके पास शब्द नहीं हैं !वह समझ नहीं पा रही कि रहस्य के बीच स्वप्न है या स्वप्न के बीच रहस्य !
किताबों के भीतर और बाहर ,दोनों तरफ बारिश हो रही है !पाठक को बारिश के महत्व और आनंद का नहीं पता शायद !कवयित्री है कि बारिश में निरंतर भीग रही है !
कवयित्री मानती हैं कि सभ्यताओं की नींव शोषण पर टिकी होती है !हर सफ़ेद के पीछे काला है !हर खुशी के पीछे अवसाद !हर ज़िंदगी के पीछे एक मौत !
कवयित्री पड़ोसी देश के खेत देखना चाहती है !क्या वहाँ की मिट्टी यहाँ जैसी है !क्या वहाँ का किसान यहाँ जैसा है !क्या वहाँ का पसीना यहाँ जैसा है ! इन सब की कल्पना कवयित्री ,तट पर खड़े जहाज देखकर ही कर लेती है !
दिसंबर का महीना कवयित्री को प्रिय है !वह इसे आखिरी महीना नहीं मानती !क्योंकि इस महीने के पास ,सभी महीनों का कुछ ना कुछ सामान पड़ा है !कोई महीना ख़्वाब छौड़ गया है !कोई हकीकत !कोई रेत के साथ बारिश ! कोई पैरों के साथ पंख ! कोई आँखों के साथ आँसू ! कोई दोस्त ! कोई दोस्ती का ख़्वाब !
कवयित्री एक रात के भीतर कई रातें देखती है ! एक ख़्वाब के बीच कई ख़्वाब ! कई बार ख़्वाब गडमगड हो जाते हैं !पता ही नहीं चलता कि मेरे वाला ख़्वाब कौनसा है और दिलबर वाला कौनसा ! कौनसा ख़्वाब मेरी नींद वाला है और कौनसा दिलबर की नींद वाला ! सारे ख़्वाब धमाचौकड़ी कर रहे हैं ! इस सबके बावजूद कवयित्री नाव लेकर ,नदी में जाना चाहती है ! ख्वाबों को चप्पू बनाकर !
निर्मला गर्ग की कुछ कविताएं जैसे साफ सुबह, अभी जरूरी होगी कविता ,थोड़ी सी नमी ,कवि उधड़ता चला गया है ,तुम लोग किस दिशा से आए हो ,रात ,शिल्प के मजबूत पल से होकर पाठक तक पहुँचती हैं !शेष कविताओं पर कथानक के हावी होने का भ्रम होता है ! कभी कभी लगता है जैसे वे कविताएं शिल्प के पेंटून पल से चलकर आ रही हों ! कवयित्री ने प्रत्येक द्रश्य को बारीकी से देखा है ! मानो पाठक के पास पहुँचना हर हाल में जरूरी हो ! कवयित्री श्रौत तक अप्रौच करती हैं !चाय से नहीं चाय के पौधे से बात करती हैं ! भावुकता सकारात्मक लगती है !
कुल जमा काव्य संग्रह अच्छा है !

संग्रह की दो पंक्तियाँ
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एक पौधे का हाथ पकड़ कर कहती हूँ
मेरे सुबह तुमसे शुरू होती है
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--सीमांत सोहल
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4 अक्तूबर 2012


काव्य संकलन "राजधानी में एक उज़बेक लड़की "
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कवि -अरविंद श्री वास्तव
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राजधानी में जो लड़की है वो उज़्बेक है !राजधानी में कोई नाईजेरियाई लड़का भी हो सकता था !लड़की के होने में सहूलियत रही होगी !नाईजेरीयाई लड़का होता तो दो चार पाठक कम होने की आशंका रहती !शायद !
अरविंद कविता लिखते हुए एक मुकम्मल कुम्हार की तरह दिखते हैं जो हरेक तरह के बर्तन बना सकता है !दीये से लेकर सुराही तक !बर्तन भी साफ सुथरे और कलात्मक !पाठक चाहे तो दीये में पानी भरकर प्यास बुझाए या सुराही में तेल भरकर रोशनी पैदा करे !
कुछ कविताओं पर अरविंद का जबरदस्त कमांड दिखता है जिसमें कटेंट और टेकनीक साथ साथ चलते हैं !ना कटेंट आगे ,ना टेकनीक पीछे !मसलन "चवन्नी का लोकतन्त्र ,राजधानी में एक उज़्बेक लड़की , सुखद अंत के लिए ,तस्वीर में माँ और उसकी सहेलियाँ "
एक बात ओर गौरतलब है कि अरविंद छोटी और लंबी दोनों कविताओं पर महारत रखते हैं !सौ मीटर और मैराथन ,दोनों के धावक हैं जो अपने स्टेमिना का एकमुश्त उपयोग करता है या बाजरूरत !
पुस्तक में प्रेम शब्द की घेराबंदी खूबसूरत तरीके से हुई है !इस लफ्ज को कई मायने मिलते हैं !पता चलता है कि प्रेम शब्द की व्याख्या इस तरह भी हो सकती है !प्रेम में लोग बहुत कुछ करते हैं पर किसी ने आज तक हाथ छोड़ कर साईकल नहीं चलाई होगी !
अरविंद ने जीवन के हर पहलू पर लिखा है मसलन बाजार ,प्रेम बचपन ,शहर ,गाँव ,घर ,अपार्टमैंट ,अंधेरा ,रोशनी आदि !बक़ौल अरविंद अंधेरा दंडित हो रहा है !जब दीपक जलाया करते थे तो लगता था जैसे अंधेरा गौरवान्वित हो रहा है !अंधेरा जैसे धीमे धीमे मुस्कुरा रहा है !दीपक की लौ नृत्य करती हुई दिखती थी !धीमी रोशनी में भी एक दूसरे के चेहरे अंतरात्माओं की यात्रा करते थे !लेकिन अब नियोन ,सीएफएल ने इन सब पर पानी फेर दिया है !
अरविंद नए कवियों के दर्द को शिद्दत से महसूस करते हैं ! नया कवि कविताएं लिखकर राजधानी की मंडियों में भेजता है !वहाँ बैठा कोई बड़ा कवि ,नए कवि का कत्ल कर देता है और इस अपराध के सबूत तक नहीं मिलते !
अरविंद की छोटी कविताएं मन पर अंकित हो जाती हैं !उन्हें याद करने के लिए पाठक को मशक्कत नहीं करनी पड़ती !ये प्लस प्वाईंट है ! लंबी कविताएं लिखते हुए भी वे सतर्क रहते हैं !कहना चाहिए कि उनकी तराजू में सुनार के बाट हैं !पाठक माशा तौला को भी महसूस करता है !
अरविंद को पढ़ने का मतलब कविता के भीतर से गुजरना है !यात्रा के बाद लगता है जैसे कुछ चमकते कविताई कण अंतर्रात्मा पर चिपक गए हों !
कवि की कुछ काव्य पंक्तियों को साझा कर रहा हूँ !
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प्रेम में कईयों ने खून से खत लिखे होंगे
कईयों ने लिखी होंगी कविताएं
मैंने दौड़ाई साईकल
कई कई बार
हैंडल छोडकर
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बल्ब बत्ती ,सी एफ एल ,नियोन
ओर कितना दंडित होगा अंधेरा
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निचुड़ चुकी थी मेरी ताकत
मेरी ताकत
जो कभी माँ हुआ करती थी
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आर बी आई की आँखों की किरकिरी
बन गई थी चवन्नी
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बाजार ने पहले दबोचा
फिर नोचा
कि मजा आ गया
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----सीमांत सोहल
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30 मई 2012


पुस्तक "स्त्री होकर सवाल करती है " (बोधि प्रकाशन )
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कवयित्री -अलका सिंह 
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अलका सिंह की लंबी कविता है "ए आदमी "!ये कवयित्री की उदारता है कि उसने कविता का शीर्षक "ओए आदमी नहीं रखा !कविता की औरत सख्त जान पड़ती है !वह मास्टरनी के रोल में है और मर्द को लतिया रही है लगातार !मर्द बेचारा लगातार सुन रहा है सिर्फ !कुछेक सवाल जो इस कविता में मर्द दे पूछे जा रहे हैं ,उनकी बानगी देखिए :
कौन हो तुम ?क्या है तुम्हारी जात ?कैसे रचते हो अपना संसार ?कैसे गुजरा मेरा कल देखोगे ?अकेले ही क्यों रचा संसार !तुम अस्थिर ,अशांत ,क्रोधित क्यों ?
ये सब सवाल मर्द के सामने हैं !मर्द बेचारा सुन रहा है !ये सारे सवाल एक तरफा हैं लेकिन सवालों में दम जरूर है !औरत सदियों से उकताई हुई है मर्द से !ये सवाल भी सदियों की देन हैं !कविता के बीच में खूबसूरत आत्म वार्तालाप भी है !औरत खुद ही से बात करती है !मसलन ,मैं इतिहास में विचर लूँ !तुम और हम अंजान !कभी शिवा ,कभी ईव ,कभी वैदेही सी मैं !तुम सृष्टि के सृजक और मैं ?तुम तप में लीन और मैं गृहस्थी में !मैंने अभी कहाँ कहा सब ?तुमने अभी कहाँ सुना कुछ ?मैं मरती रही ,मैं चुप रही !तुम्हारा साथ प्रश्न चिन्ह है !मैं रोज चिता पर बैठ परीक्षा देती हूँ !मैं सृष्टि तुम रचनाकार !गर्भ मेरा ,संतान तुम्हारी !देह मेरी ,शासन तुम्हारा !कष्ट मुझे ,श्रेय तुम्हें !
इतने सारे सवाल और इतना लंबा खुद से वार्तालाप !इस कविता को दो तीन बार पढ़ना पड़ता है !जितनी बार पढ़ेंगे ,उतनी बार एक नया सवाल सामने आ खड़ा होता है !उतनी ही बार औरत ज्यादा सताई हुई सी लगेगी !कुछ पाठक ,मर्द से सहानुभूति रख सकते हैं !वो ये सोच सकते हैं कि यही कविता एक मर्द की तरफ से लिखी गई होती तो सभी महिलावादी उसके पीछे पड़ गए होते और उसे स्त्री प्रताड़णा का इल्जाम सहना पड़ता !सारी धाराएँ उसके खिलाफ होतीं !सारे कानून उसे धकिया रहे होते !सारे प्रबुद्ध वकीलों के बावजूद उसका केस कमजोर पड़ गया होता !पूरी ज़िंदगी वह मर्द, मौत के बारे में सोचता ,पर औरत के बारे में नहीं सोचता !खैर ... !
अलका ने इस कविता को डूब कर लिखा है !कविता की औरत कोई मौका छोडना नहीं चाहती !तीनों कालों को साथ लेकर वह मर्द की क्लास ले रही है !मर्द को अगर उल्टे सवाल करने का मौका मिलता तो उसके सवाल भी जबरदस्त होते !मसलन ,ए चिड़चिड़ी औरत ?मुंह को लीपने वाली औरत ?बैठना इसके साथ ,चलना उसके साथ ?नैन मटक्का इससे ,मोहब्बत उससे ?पहले मोहब्बत ,फिर जिल्लत देने वाली औरत ?हाथ में मिट्टी के तेल का कनस्तर लेकर डराने वाली औरत ?कोई नहीं मेरे साथ ,सारे कानून तेरे साथ ?
ये सारी मर्द की खीझ होती !अगर उसे कविता में जवाब देने का मौका मिलता तो !
अलका ने अच्छी कविता लिखी है !बीच बीच में धाराप्रवाह के बावजूद कुछ ऊबड़ खाबड़ सा लगता है !खैर ये दिक्कत हरेक पाठक के लिए नहीं है !कविता में महत्वपूर्ण प्रश्नों का जमावड़ा है !एक पूरी की पूरी औरत की सोच कविता में काम करती है !इसमें अलका का क्या दोष अगर कविता की औरत हद से ज्यादा सतियाई हुई लगती है तो !कविता में एक मुकम्मल औरत सामने आ खड़ी होती है !उसके अधिकांशतः प्रश्नों से सहमत होना पड़ता है !हरेक बात से सहमत होना तो कम से कम इस ब्रह्मांड में मुश्किल है !
अलका की कविता को मैं एक बार फिर पढ़ूँगा !
कविता की याद रह जाने वाली पंक्तियाँ 
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गर्भ मेरा ,संतान तुम्हारी 
कष्ट मुझे ,श्रेय तुम्हें 
देह मेरी ,शासन तुम्हारा 
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-सीमांत सोहल 

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21 मई 2012


पुस्तक "स्त्री होकर सवाल करती है "( बोधि प्रकाशन )
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कवयित्री -रंजू भाटिया 
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रंजू भाटिया ,मोनालिसा की तस्वीर देख रही हैं !फिर खुद को देख रही हैं !मोनालिसा के होठों की मुस्कान और उसकी आँखों की उदासी को समझने की कोशिश कर रही हैं रंजू !मोनालिसा की आँखों में एक गुलाब है !होठों पर अंधेरापन या उसका उल्टा !होठों पर गुलाब या आँखों में अंधेरापन !होठों की रंगत कई भेद खोलना चाहती है !आँखों की उदासी अंधेरे को नए सिरे से परिभाषित करती है !सच क्या है ,झूठ क्या है !ये सिर्फ मोनालिसा के होंठ जानते हैं !कितनी रातों की नींद बाकी है !इसका हिसाब ,सिर्फ उसकी आँखों के पास है !रंजू ,मोनालिसा में खुद को देख रही हैं !मोनालिसा भी शायद रंजू को देखकर अपना दर्द ब्यान कर रही है !
बक़ौल रंजू ,मोनालिसा वो औरत है जो अपना दर्द या अपनों का दर्द पीकर के मुस्कुरा रही है !उसके होठो की एंठन बहुत कुछ कह रही है !उसके होठों की एंठन उसके दिलबर की जिद की वजह से है !उसकी आँखों में जन्मों की उदासी है ,तभी उसकी आँखें उनींदी सी हैं !होंठ और आँखें एक दूसरे के प्रतीद्वंद्वी हैं !तू ज्यादा उदास कि मैं !तेरे साथ हुई बेवफाई बड़ी या या मेरे साथ हुई ?मेरा सब्र बड़ा कि तेरा ?
रंजू कहती हैं कि मोनालिसा की मुस्कुराहट को सिर्फ मोनालिसा ही समझ सकती हैं !दर्द के साथ मुस्कुराहट कोई मोनालिसा से सीखे !बेहिसाब रातों की नींद साथ लेकर कोई आँखों को बिना झपकाए ,दिखाए !इस कविता में रंजू ,मोनालिसा हो गई हैं और मोनालिसा, रंजू !दोनों को अलग कर पाना मुश्किल है !ये कवि और कविता की सफलता है !
रंजू की दूसरी कविता बेटी को लेकर है !बेटी कमजोर नहीं है !अपने अधिकार जानती है !उसमें जंग जीतने का जज्बा है !इरादे पक्के हैं !आँसू पीकर जीवन नहीं बिताना है !आसमान को छूना है !
रंजू कहती हैं कि मुझे इस तरह अपनी बेटी के मार्फत मंजिल मिल जाएगी !मैं हमेशा से अग्नि परीक्षा देने वाली सीता हूँ !मैं दुर्गा हूँ पर गर्भ में आते ही चिंता का विषय बन जाती हूँ !कभी मुझे जला दिया जाता है ,कभी मॉडर्न आर्ट बनाकर दीवारों पर लगा दिया जाता है !ऐसे कितने ही सवाल रंजू के दिमाग में हैं !जिनको दुनिया से आजादी चाहिए ,पहचान चाहिए !रंजू रोष भरे लहजे में पूछती हैं कि आखिर मैं क्या हूँ ?डूबते सूरज की किरण ?बेबस चुप्पी ?माँ की आँख का आँसू ?बाप के माथे की चिंता की लकीर ? समंदर में डोलती हुई कश्ती ?पंख कितने भी बड़े क्यों ना हों ,फिर भी रंजू खुद को बेबस पाती हैं लेकिन अपनी बेटी की मार्फत अपनी मंजिल पा लेना चाहती हैं !
रंजू की कविताएं अगर नदी हैं तो पाठक उनमें तैरना भी चाहेगा , डूबना भी चाहेगा !कविताओं में साहित्यिक तपिश है !कविता पड़ते हुए कंटीन्यूटी बनी रहती है कविताओं में खुशबू है बशर्ते कि पाठक कविताओं के नजदीक पहुंचे !जितनी निकटता ,उतनी खुशबू !
रंजू भाटिया की याद रह जाने वाली पंक्तियाँ 
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आँगन से आकाश तक 
सारी हदें पार कर आती है 
वरना यूं कौन मुसकुराता है 
भिंचे हुए होठों के साथ 
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-सीमांत सोहल 
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14 मई 2012


पुस्तक "स्त्री होकर सवाल करती है "(बोधि प्रकाशन )
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कवि -गोपी नाथ
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गोपीनाथ ने एक बच्ची के मार्फत अपनी बात कही है !बच्ची बहुत बच्ची है !वह अपने कमरे तक सीमित है जैसे कि एक औरत का दायरा रहता है !बच्ची को अपने छोटे से कमरे के अलावा कुछ भी नहीं मालूम !उसे नहीं मालूम कि फूल ,पत्ते ,झरने ,पहाड़ ,आसमान ,बादल ,बारिश क्या होती है !उसे ये  नहीं मालूम कि खेत ,सड़कें ,मैदान क्या होते हैं !आश्चर्य की बात तो ये है कि उसे ये भी नहीं मालूम कि माँ क्या होती है !शायद उसकी माँ ,उसे जनना ना चाहती हो !मजबूर पैदा की गई बच्ची का गला घोंटने की हिम्मत ना जुटा पाई हो !दादा -दादी पूरी तरह से इस काम में साथ होंगे तब भी !माँ का दिल ना माना होगा !ईश्वर का डर रहा हो शायद !  उस बच्ची को ना तो मौत मिली ,ना ही माँ की मोहब्बत !खैर.... !
बच्ची के ख्वाबों में तितलियाँ आती हैं !तितलियों से गुफ्तगू होती है !वे बच्ची को बाहर निकालने को प्रेरित करती हैं !उसे बताया जाता है कि इस कमरे से बाहर बहुत कुछ है !इस कमरे के बाहर उसकी माँ भी है !इतना सुनते ही वह बच्ची ,माँ की एक तस्वीर मन में बना डालती है !फिर उसे सिर्फ और सिर्फ माँ के ही ख्वाब आते हैं !ख्वाबों की माँ असलियत की माँ लगने  लगती है !एक दिन बच्ची ,तितलियों से अपनी माँ की खबर पूछती है !तितलियाँ उदास हैं ,कुछ नहीं बोलतीं !चुपचाप लौट जाती हैं !बच्ची चीखती है "मुझे बचाओ "!
बच्ची असमंजस में है !माँ भी नहीं मिली ,तितलियाँ भी उदास हैं !इससे अच्छा तो पहले ही ठीक था जब पता नहीं था कि माँ क्या होती है !कम से कम मुस्कुरातीं तितलियाँ तो थीं !ख़्वाब तो थे !ख़्वाब थे तो ख्वाबों के सच होने का भी ख़्वाब था !अब वही कमरा है !वही बच्ची है !ना तितलियाँ हैं ,ना माँ ,ना माँ की तस्वीर !
गोपीनाथ की दूसरी कविता में एक मजबूत औरत है !मर्द लोग जब पेड़ की छांव ढूंढते हैं !तब औरतें छांव के बारे में सोचती भी नहीं !औरतें तो खुद छांव हैं ,फिर छांव को छांव ढूँढने की क्या जरूरत ?ये औरतें किस मिट्टी की बनी हैं !मर्दों को कहती हैं "मेहनत करो ,जी भर के "!जब थकान हो तो आ जाओ  छांव में !आ जाओ आगोश में !रिफ्रेश होकर फिर निकलो काम पर !ये कुदरत का खूबसूरत इनपुट -आउटपुट है !
औरतों की हिम्मत देखिए !जहां मर्द कुदालें ,खाली वापिस लिए आ जाते हैं !औरतें उन्हीं कुदालों से पानी का झरना खोज लेती हैं !ये लोहे की औरतें हैं !ईश्वर से टक्कर लेती औरतें हैं !ईश्वर भी सृजन करता है ,औरत भी !ईश्वर का ह्रदय भी विशाल है ,औरत का भी !भावनात्मक रूप से हारा पुरूष ईश्वर की शरण में जाता है या औरत की !
गोपीनाथ की पहली कविता भावुक कथ्य लिए हुए है !कविता में कोई बनावटी ,ओढ़ी हुई  सतर्कता नहीं है !पाठक को कविता की बच्ची ,अपनी बच्ची लगने  लगती है !कविताएं झरने की तरह हैं जिसके पास पाठक सर पे साफा बांधकर ठंडी हवा ले सकता है ,प्यास लगे तो जल है ही !कविताओं की टेक्नीक को पाठक समझता है और आत्मसात करता है !यही गोपीनाथ की कविताओं का प्लस प्वाईंट  है !
गोपीनाथ की याद रह जाने वाली पंक्तियाँ
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मर्द ढूंढ रहे हैं छांव पेड़ की
चिलचिलाती धूप में खड़ी हैं औरतें
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-सीमांत सोहल
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6 मई 2012


पुस्तक "स्त्री होकर सवाल करती है " (बोधि प्रकाशन )
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कवयित्री -अर्पिता श्रीवास्तव 
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अर्पिता श्रीवास्तव की औरत भारी भरकम इच्छाएँ पाले हुए है !उसे लंबा सफर तय करना है ,गुलाबी होठों की प्यास से विचलित हुए बगैर !वह धरती के रहस्यों को अपने भीतर समेटे हुए है !वक्षों में उफनती नदियां हैं जिन्हें उन बाजुओं का इंतजार है जिनमें अपनत्व भरी जकड़न हो !जकड़न में वृक्ष जैसी गहराई हो !उन वक्षों को ऐसे बाजुओं की जरूरत है जो असंख्य ज्वालामुखियों को शांत कर सकें !अर्पिता की औरत को ऊफान के भीतर भी एक ऊफान चाहिए ,जिसमें गर्दो -गुबार सब धूल जाएँ !रोशनी का फव्वारा फूटे 1एक तना हुआ इंद्रधनुष हो ,जिसके एक तरफ वो हो और दूसरी तरफ उसका दिलबर !
अर्पिता की औरत "ये दिल मांगे मोर "वाली औरत है !जिसकी इच्छाएँ विशाल हैं !जिसे समाज ,दुनिया की परवाह नहीं है !जिसे रस्मों रिवाज से कुछ लेना देना नहीं है !वो अपने दिलबर के लिए कंजरी बनने को भी तैयार है !मैं यार मनाणा नी ,चाहे लोग बोलियां बोलें ,वाली औरत !
वो औरत मजबूत बाजुओं को महत्व देती है !उसे मजबूत बाजुओं वाला दिलबर चाहिए ,अक़्लमंद और खूबसूरत नहीं !फिर चाहे ,उस दिलबर की मोहब्बत का मीटर कैसा भी हो !ये अर्पिता की औरत का अनोखा रूप है जिसे कोई दूसरी औरत पचा भी सकती है और नहीं भी !वैसे अर्पिता की औरत का भी कसूर नहीं है !मोहब्बत में अक्ल की क्या जरूरत ?अक़्लमंद आदमी चिंतन करता है मोहब्बत नहीं !उसे मालूम नहीं रहता कि मोहब्बत की चिड़िया किस मुंडेर पर बैठती है !वो इस चिड़िया को किताबों में ढूंढता रहता है !
अर्पिता की औरत मोहब्बत में है !वो अपने आप में नहीं है !उसे नहीं मालूम वो क्या चाह रही है !मोहब्बत में वैसे ही आँखों की द्रष्टि कम हो जाती है !इसीलिए उसकी निगाह बाजुओं तक ही सीमित रहती है !
अर्पिता की औरत बिगड़े हुए वर्तमान की औरत है जिसे सिर्फ मोहब्बत से मतलब है ,मोहब्बत की शक्ल से नहीं !बाजुओं से मतलब है ,दिल से नहीं !मकान से मतलब है ,घर से नहीं !
इसके अलावा अर्पिता की, औरत को परिभाषित करती सात छोटी छोटी कविताएं हैं !जिनमें औरत नदी और धरा की तरह है !बाजार की चाह में सँवरती है !अलंकारों के बासीपन से खीझी हुई !खुद के लिए जीना चाहती हुई !झाड़ू पोंछा करती हुई !ये सोचती हुई कि उसने अपनी माँ से भी लंबा फासला तय किया है !
अर्पिता की कविताएं उस गाँव के नजदीक पहुँच गई लगती हैं जिसका नाम "अच्छा काव्य "है !कविता में कुछ खूबसूरत विरोधाभास हैं जिनका कलात्मकता से कोई गठजोड़ नहीं है !छोटी कविताएं ,कम कडक वाली चाय के छोटे प्यालों की तरह हैं !पेट की अम्लता के बावजूद लगता है ,काश कुछ प्याले ओर होते !
अर्पिता श्रीवास्तव की याद रह जाने वाली पंक्तियाँ
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मुझे प्रेम के उफनते गोतों में वो उफान चाहिए
जिसकी
एक छोर को पकड़े तुम हो और एक तरफ मैं
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-सीमांत सोहल
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27 अप्रैल 2012


पुस्तक "स्त्री होकर सवाल करती है " (बोधि प्रकाशन )
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कवयित्री -अनीता कपूर 
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अनीता कपूर की औरत, आकर्षण को लेकर गहरे चिंतन में है !वह किसी से भी बात कर सकने की घटना को संबंध मानती है !चाहे संबंध का स्तर कैसा भी हो !आखिर संबंध तो संबंध होता है !लेकिन एक बात तय है !अनीता की औरत तन से ज्यादा ,मन के संबंध को तरजीह देती है !वह तन के खिंचाव से ज्यादा मन के खिंचाव को रेखांकित करती है !मन के संबंध से बेपरवाह सी सुगंध आती है !आँखों पर बात करने से बेहतर ,आँखों में डूबना अच्छा !किसी को दिलासा देने से बेहतर ,उस पर मर मिटना अच्छा !किसी के दुख में शामिल होने से बेहतर ,उसके दुख को अपना मान लेना !उसके चेहरे पर आती धूप को रोकने के लिए ,छाता ढूँढने से बेहतर ,अपनी हथेलियाँ आगे कर देना अच्छा !उसके जिस्म से ज्यादा उसकी रूह को देखना !
ऐसा अगर हो जाए तो अनीता कपूर ऐसे संबंध को पूर्ण संबंध कहती हैं !फिर वो संबंध चाहे कितना ही बेगाना हो ,कितना ही अंजाना हो !
अनीता की औरत ये भी कहती है कि तुम अपने कदमों के निशान अपने साथ लेते जाओ !क्या ये संभव है ?अपनी परछाईया साथ लेते जाओ !अपनी सांसें साथ लेते जाओ !यादों के जल जाने के बाद जो राख़ बची है ,वो भी साथ लेते जाओ !क्या ये संभव है ?कतई नहीं !ये जिज्ञासा मेरे नहीं ,अनीता की औरत की है !अगर ये संभव नहीं है तो फिर उस दिलबर को भूलना और उसकी यादों से पीछा छुड़ाना कैसे संभव है ?जब ये मालूम ही नहीं कि उसकी साँसे कौनसी हैं और कौनसी मेरी ,तो कैसे कहा जाए कि अपनी साँसें लेते जाओ !जब उसकी याद तो क्या ,यादों की राख़ से भी मोहब्बत हो तो कैसे कहा जाए कि राख़ ले जाओ !जब परछाईओं में फर्क ही नहीं ,तो अपनी परछाई उससे कैसे अलग की जाए ?
अनीता की औरत शिकायत में सवाल करती है कि मैं तेरी कौन लगती हूँ !ये सवाल उस दिलबर से है जिसकी गलियों की हवा ,रूह तक आ पहुंची है !जिसकी आवाज की खुशबू ,मन को सरोबार कर रही है !वह असमंजस में है कि वो खुदा का बंदा उसका लगता क्या है और ये नाचीज उसकी है है कौन ?
ये सब अनीता की औरत की मन की घटनाएँ हैं !
अनीता कपूर की कविताएं कुछ कुछ सूफियाना हैं !कविताओं में आई औरत की सोच भी सूफियाना है !कविताओं को पढ़कर अधूरी प्यास भूझती है !कभी कभी लगता जरूर है कि प्यास ओर बड़ी होती और उसके भूझने की अवधि ओर छोटी !पाठक को अगर पित्त दोष है तो ये कविताएं ठंडे पानी का काम करती हैं !
अनीता कपूर की याद रह जाने वाली पंक्तियाँ 
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तेरी आवाज की एक खुशबू 
दिल के दरवाजे को धकेल मेरी रूह को सरोबार कर गई 
मैं तेरी कौन लगती हूँ ?
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-सीमांत सोहल
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