21 मई 2012


पुस्तक "स्त्री होकर सवाल करती है "( बोधि प्रकाशन )
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कवयित्री -रंजू भाटिया 
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रंजू भाटिया ,मोनालिसा की तस्वीर देख रही हैं !फिर खुद को देख रही हैं !मोनालिसा के होठों की मुस्कान और उसकी आँखों की उदासी को समझने की कोशिश कर रही हैं रंजू !मोनालिसा की आँखों में एक गुलाब है !होठों पर अंधेरापन या उसका उल्टा !होठों पर गुलाब या आँखों में अंधेरापन !होठों की रंगत कई भेद खोलना चाहती है !आँखों की उदासी अंधेरे को नए सिरे से परिभाषित करती है !सच क्या है ,झूठ क्या है !ये सिर्फ मोनालिसा के होंठ जानते हैं !कितनी रातों की नींद बाकी है !इसका हिसाब ,सिर्फ उसकी आँखों के पास है !रंजू ,मोनालिसा में खुद को देख रही हैं !मोनालिसा भी शायद रंजू को देखकर अपना दर्द ब्यान कर रही है !
बक़ौल रंजू ,मोनालिसा वो औरत है जो अपना दर्द या अपनों का दर्द पीकर के मुस्कुरा रही है !उसके होठो की एंठन बहुत कुछ कह रही है !उसके होठों की एंठन उसके दिलबर की जिद की वजह से है !उसकी आँखों में जन्मों की उदासी है ,तभी उसकी आँखें उनींदी सी हैं !होंठ और आँखें एक दूसरे के प्रतीद्वंद्वी हैं !तू ज्यादा उदास कि मैं !तेरे साथ हुई बेवफाई बड़ी या या मेरे साथ हुई ?मेरा सब्र बड़ा कि तेरा ?
रंजू कहती हैं कि मोनालिसा की मुस्कुराहट को सिर्फ मोनालिसा ही समझ सकती हैं !दर्द के साथ मुस्कुराहट कोई मोनालिसा से सीखे !बेहिसाब रातों की नींद साथ लेकर कोई आँखों को बिना झपकाए ,दिखाए !इस कविता में रंजू ,मोनालिसा हो गई हैं और मोनालिसा, रंजू !दोनों को अलग कर पाना मुश्किल है !ये कवि और कविता की सफलता है !
रंजू की दूसरी कविता बेटी को लेकर है !बेटी कमजोर नहीं है !अपने अधिकार जानती है !उसमें जंग जीतने का जज्बा है !इरादे पक्के हैं !आँसू पीकर जीवन नहीं बिताना है !आसमान को छूना है !
रंजू कहती हैं कि मुझे इस तरह अपनी बेटी के मार्फत मंजिल मिल जाएगी !मैं हमेशा से अग्नि परीक्षा देने वाली सीता हूँ !मैं दुर्गा हूँ पर गर्भ में आते ही चिंता का विषय बन जाती हूँ !कभी मुझे जला दिया जाता है ,कभी मॉडर्न आर्ट बनाकर दीवारों पर लगा दिया जाता है !ऐसे कितने ही सवाल रंजू के दिमाग में हैं !जिनको दुनिया से आजादी चाहिए ,पहचान चाहिए !रंजू रोष भरे लहजे में पूछती हैं कि आखिर मैं क्या हूँ ?डूबते सूरज की किरण ?बेबस चुप्पी ?माँ की आँख का आँसू ?बाप के माथे की चिंता की लकीर ? समंदर में डोलती हुई कश्ती ?पंख कितने भी बड़े क्यों ना हों ,फिर भी रंजू खुद को बेबस पाती हैं लेकिन अपनी बेटी की मार्फत अपनी मंजिल पा लेना चाहती हैं !
रंजू की कविताएं अगर नदी हैं तो पाठक उनमें तैरना भी चाहेगा , डूबना भी चाहेगा !कविताओं में साहित्यिक तपिश है !कविता पड़ते हुए कंटीन्यूटी बनी रहती है कविताओं में खुशबू है बशर्ते कि पाठक कविताओं के नजदीक पहुंचे !जितनी निकटता ,उतनी खुशबू !
रंजू भाटिया की याद रह जाने वाली पंक्तियाँ 
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आँगन से आकाश तक 
सारी हदें पार कर आती है 
वरना यूं कौन मुसकुराता है 
भिंचे हुए होठों के साथ 
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-सीमांत सोहल 
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